November 22, 2025 12:34 am
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डर, भाषा और लोकतंत्र का गिरता स्तर

बिहार चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी की ‘कट्टा-गोली’ वाली भाषा ने बहस छेड़ दी है। बेबाक भाषा के इस विश्लेषण में पढ़िए कैसे डर, अश्लीलता और ग़ुसपैठिया जैसे शब्द असली मुद्दों — बेरोज़गारी, उद्योग, और महिला सशक्तिकरण — से ध्यान भटका रहे हैं।

मोदीजी की भाषा बिहार में कट्टा+ गोली + रंगदारी पर क्यों अटकी, खज़ाना खाली हुआ!

बिहार का चुनाव सिर्फ बिहार के करोड़ों मतदाताओं का नहीं, बल्कि पूरे देश का चुनाव बन गया है। यह इसलिए भी अहम है क्योंकि यह देश का पहला विधानसभा चुनाव है जो स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न (Special Intensive Revision) के बाद हो रहा है। यानी वह प्रक्रिया जिसके तहत मतदाता सूची की कथित सफ़ाई की गई — और जिसके दुरुपयोग पर अब पूरे देश की निगाह है।

पर चुनावी हवा में सिर्फ वोटर लिस्ट की सफ़ाई नहीं, भाषा की गंदगी भी फैल रही है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों में जिस तरह की शब्दावली सुनाई दे रही है — “कट्टा, गोली, रंगदारी, जंगलराज” — वह यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या यह एक प्रधानमंत्री की भाषा है या किसी गली के अखाड़े की चुनौती?

कट्टा-भाषा का खेल और डर की राजनीति

प्रधानमंत्री मोदी जब बिहार में “कट्टा-कट्टा-कट्टा” और “गोली-गोली-गोली” का राग अलाप रहे हैं, तब लगता है कि उन्हें बिहार की जनता से संवाद नहीं, डर फैलाना ज़्यादा ज़रूरी लग रहा है।
पिछले दो दशकों से बिहार में एनडीए की सरकार रही है — यानी नीतीश कुमार के नेतृत्व में वही शासन जिसके शीर्ष पर खुद मोदी जी हैं। तो सवाल उठता है: अगर बिहार अब भी ‘कट्टे’ और ‘रंगदारी’ की ज़मीन है, तो ज़िम्मेदार कौन?

यह वही प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने 2024 के लोकसभा चुनाव में भी जनता को डराने की कोशिश की थी — कभी मंगलसूत्र चोरी का डर दिखाकर, कभी सोना-गहना लुटने की धमकी देकर। अब वही डर बिहार की धरती पर “जंगलराज” के पैकेज में लौट आया है।

बोली में गिरावट और भोजपुरी का ‘कट्टा कल्चर’

मोदी जी ने चुनावी मंच से भोजपुरी के तथाकथित “लोकप्रिय गीतों” का ज़िक्र करते हुए उनका राजनीतिक इस्तेमाल शुरू कर दिया है — जिनमें “मारब सिक्सर” जैसे गीत भी शामिल हैं।
विडंबना यह है कि इन गीतों के गायक पवन सिंह और मनोज तिवारी, दोनों ही भाजपा से जुड़े रहे हैं — और उनके गानों में हिंसा, अश्लीलता और स्त्री-विरोधी भावनाएं भरपूर हैं।
जब प्रधानमंत्री इन्हीं गानों को मंच से “लोकप्रिय संस्कृति” के उदाहरण के रूप में पेश करते हैं, तो यह न केवल बिहार की सांस्कृतिक गरिमा का अपमान है, बल्कि यह दिखाता है कि चुनावी लाभ के लिए गिरावट की कोई सीमा नहीं रही।

कट्टा बनाम कारख़ाना: असली सवालों से ध्यान भटकाना

जब बिहार की महिलाएँ नौकरी, उद्योग, और विकास की बात कर रही हैं — जब खेतों में काम करने वाली मज़दूर महिलाएँ पूछ रही हैं कि “बीस साल में बिहार में एक भी शुगर मिल क्यों नहीं खुली?” — तब मोदी जी कट्टे का जप कर रहे हैं।

सरकार दावा करती है कि एक करोड़ 41 लाख महिलाओं को ₹10,000 की सहायता मिली है, पर जब पत्रकार गाँवों में पूछते हैं कि इस पैसे का क्या हुआ, तो जवाब मिलता है — “तीन बकरियाँ खरीदीं, एक सिलाई मशीन ली।”
यानी, महिलाओं को आत्मनिर्भर नहीं, निर्भर दिखाने का खेल खेला जा रहा है।
इसलिए सवाल जायज़ है — क्या यह विकास की राजनीति है या बस वोट का कारोबार?

योगी आदित्यनाथ की ‘टप्पू-पप्पू’ राजनीति

प्रधानमंत्री के बाद जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बिहार की सभाओं में उतरते हैं, तो स्थिति और भयावह हो जाती है।
वह गांधीजी के तीन बंदरों का मज़ाक उड़ाते हैं, विपक्ष के नेताओं को ‘पप्पू-टप्पू’ कहकर संबोधित करते हैं।
यह वही योगी हैं जो बुलडोज़र की राजनीति को गर्व से बेचते हैं — और यही शब्दावली अब बिहार में भी फैलाई जा रही है।
क्या यही “नया भारत” है जहां अपमान और हिंसा से तालियाँ बजवाई जाती हैं?

‘ग़ुसपैठिया’ और ‘भेड़िया आया’ का चुनावी नैरेटिव

जब प्रधानमंत्री बिहार में यह कहने लगते हैं कि “विपक्ष ग़ुसपैठियों की सरकार बनाना चाहता है”, तो सवाल उठता है — पिछले 11 साल से केंद्र में सत्ता किसके पास है?
अगर बिहार में ग़ुसपैठिए आ गए हैं, तो ज़िम्मेदार कौन — विपक्ष या केंद्र की सरकार?

कांग्रेस ने ठीक कहा — “ग़ुसपैठिया आया” अब “भेड़िया आया” की तरह का खोखला डर बन चुका है, जिसे बार-बार दोहराया जा रहा है ताकि जनता असली मुद्दों को भूल जाए।

दलित नौजवान की गिरफ़्तारी और ‘असली जंगलराज’

प्रधानमंत्री की रैली में एक युवा सिर्फ एक पोस्टर लेकर आया —
“दलितों पर अत्याचार कब बंद होगा?”
न कोई नारा, न हिंसा।
पर पुलिस ने उसे गिरफ़्तार कर लिया।
यह दृश्य बताता है कि डर सिर्फ भाषणों में नहीं, शासन में भी बसा है।
प्रधानमंत्री अगर वाकई ‘विश्वगुरु’ हैं तो क्या उनमें इतनी हिम्मत नहीं कि उस युवक को बुलाकर उसकी बात सुन लें

चुनावी मंच से कट्टा तक: लोकतंत्र का पतन

यह चुनाव सिर्फ बिहार का नहीं है — यह भारतीय लोकतंत्र के गिरते मानकों की परीक्षा है।
जब प्रधानमंत्री खुद अपनी सभाओं में भय और अपमान की भाषा बोलने लगें, जब गाने और गालियाँ नीतियों और योजनाओं की जगह ले लें, तब समझिए कि लोकतंत्र की बुनियाद पर हमला हो रहा है।

प्रियंका गांधी ने सही पूछा — “क्या यही प्रधानमंत्री की भाषा है?”
और यही सवाल आज बिहार की जनता भी पूछ रही है।

भाषा सिंह

1971 में दिल्ली में जन्मी, शिक्षा लखनऊ में प्राप्त की। 1996 से पत्रकारिता में सक्रिय हैं।
'अमर उजाला', 'नवभारत टाइम्स', 'आउटलुक', 'नई दुनिया', 'नेशनल हेराल्ड', 'न्यूज़क्लिक' जैसे
प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों

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