November 22, 2025 12:33 am
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ज़मीन से उठीं ये आवाजें वोट में तब्दील होंगी, क्या बदलेगा बिहार!

बिहार की जमीन से सुनी हुई ग्राउंड रिपोर्ट — रोज़गार, स्थायी नौकरियाँ, इन्फ्रास्ट्रक्चर और भाकपा-माले की जमीन पर उपस्थिति; जानिए जनता क्यों नाराज़ है।

इन आवाज़ों से पता चलता है — चुनाव में जनता के असली सवाल क्या हैं?

बिहार के कई गाँवों और कस्बों में मिली ये आवाज़ें दिखाती हैं कि इस चुनाव में सिर्फ पेपर पर वादे नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की ज़िन्दगी, रोजगार और बुनियादी सेवाओं की कमी सबसे बड़ी चिंता है। जनता क्या चाहती है और किस वजह से नाराज़ है — जमीन से जुड़ी रिपोर्ट।

बिहार के मैदानों पर हमारी टीम ने जो सुना और देखा, वह मुख्यधारा की चर्चा से अलग, सीधे घर-घर की उन शिकायतों और मांगों का प्रतिबिम्ब था जिन्हें अक्सर मीडिया अनसुना छोड़ देता है। लोगों की फ़िक्रों का सार तीन बातों में झलकता है — रोज़गार, स्थायी नौकरी/भुगतान, और मूलभूत इन्फ्रास्ट्रक्चर (सड़क, नाला, पानी)।

“हम लोग तो अपना काम कर रहे हैं या नहीं कर रहे हैं — हमें पर्मानेंट चाहिए। टेम्पररी काम हम लोग नहीं कर सकते,” एक ग्रामीण ने जैसे कहा। यही भावना कई जगहों पर मिली: “अब बदलाव होना चाहिए”, “गरीब को कौन देख रहा है”, “बारिश में सड़कें व नाले डूबे रहते हैं” — ये वाक्य बार-बार सुने गए।

बेरोज़गारी और महंगाई — सबसे ऊँची आवाज़ें

स्थानीय लोग दावा कर रहे हैं कि पहले मिलने वाले गाईश (वेतन/कमीशन) और आज के मिलने वाले में अन्तर बड़ा है। एक ग्रामीण ने बताया कि 400 में मिलने वाला काम अब 950 में मिल रहा है — पर वह स्थायी नहीं। महंगाई और अस्थायी कमाई का जोड़ लोगों को चुनावी बदलाव के लिए प्रेरित कर रहा है।

नीतिगत वादों पर संदेह

कुछ बड़े वादे — हर परिवार को नौकरी, हर गरीब को कुछ निश्चित आर्थिक सहायता — का ज़िक्र हुआ, पर जमीन पर फार्म भरने और लाभ न मिलने की शिकायतें भी तेज़ हैं। “नितीश बाबू ने कहा था हर गरीब को 2 लाख देंगे — पर गाँव-गाँव जाकर फार्म भरे गए और पैसा नहीं मिला” — इस तरह के आरोप आम जनता में निराशा पैदा कर रहे हैं।

दूसरी तरफ़ — भीड़ बनाम संसाधन

हमने देखा कि जिन पार्टियों के पास धनबल है, उनके अभियान भव्य हैं; वहीं भाकपा माले जैसे संगठनों के प्रचारक साधारण कपड़े-चप्पल में पैदल-चला कर जनसंपर्क करते हैं। जमीन पर वही फर्क दिखता है — धनबल बनाम जनता-आधारित मेहनत। स्थानीय लोगों का अनुभव बरसों के स्थानीय संघर्ष की दास्तान कहता है: किसने गरीबों के अधिकारों की आवाज़ विधानसभा में उठाई और किसने केवल वादे किए।

वोटिंग प्रैक्टिस, झूठे वादे और लोकतन्त्र का सवाल

स्थानीय लोग वादों की जुमलेबाज़ी पर भरोसा खोते नज़र आते हैं — “15 लाख हर खाते में”, “हर घर में नोकरी” जैसे वादे जनहित से हटकर आश्वासन लगे। इसके साथ-साथ वोट चोरी और सरकारी प्रक्रिया पर संदेह भी है — रिपोर्ट में यही सवाल बार-बार आया: क्या बदलाव होगा या वही पुराना तंत्र चलते रहेगा?

भाकपा-माले की भूमिका और जमीन की धारणा

भाकपा-माले का स्थानीय स्तर पर उभरना — विशेषकर युवाओं और मजदूरों के बीच — चुनावी समीकरण बदलने की क्षमता रखता है। जनता बताती है कि इन आंदोलनों के पीछे स्थानीय मुद्दों की सचेत पकड़ है: ज़मीन, मजदूरी, बेरोज़गारी और सार्वजनिक सेवाएँ। जबकि पार्टी को संसाधन कम दिखते हैं, उनकी नज़र जमीन पर गहरी है — और यही उनकी ताकत हो सकती है।

निष्कर्ष

बिहार की ये आवाज़ें साफ़ कर देती हैं: इस चुनाव में वोटरों की प्राथमिकता जुमले नहीं, रोज़गार, भुगतान की गारंटी, स्थायी नौकरियाँ और बुनियादी सहूलियतें हैं। अगर परिणामों ने इन आवाज़ों पर ध्यान नहीं दिया — तो ‘वोट चोरी’ या ‘सरकार चोरी’ जैसा आरोप उठ सकता है; और अगर परिणामों ने इनका ख्याल रखा — तो स्थानीय बदलाव नज़र आएगा। चुनाव सिर्फ़ प्रदर्शन नहीं — ज़मीन की ज़रूरतों का जवाब है।

भाषा सिंह

1971 में दिल्ली में जन्मी, शिक्षा लखनऊ में प्राप्त की। 1996 से पत्रकारिता में सक्रिय हैं।
'अमर उजाला', 'नवभारत टाइम्स', 'आउटलुक', 'नई दुनिया', 'नेशनल हेराल्ड', 'न्यूज़क्लिक' जैसे
प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों

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