बिहार चुनाव 2025: ‘विकास बनाम बुर्का’ की राजनीति और बिहार की सच्चाई
बिहार में इस वक्त चुनावी रण पूरी तरह गर्म है। मंच पर हैं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ — और उनका एजेंडा, हमेशा की तरह, बिलकुल साफ़ है। चाहे दानापुर की रैली हो या सहरसा की — उनका भाषण एक ही लाइन पर चलता है:
“हिंदू बनाम मुसलमान, विकास बनाम बुर्का।”
दरअसल, योगी आदित्यनाथ बिहार आए हैं नितीश कुमार को जिताने, लेकिन रास्ता उन्होंने वही चुना है जो उन्हें सबसे आसान लगता है — ध्रुवीकरण का।
मुस्लिम उम्मीदवारों की घटती संख्या और BJP का दबाव
नितीश कुमार की पार्टी ने इस बार जिन 101 सीटों पर उम्मीदवार उतारे हैं, उनमें मुस्लिम प्रत्याशियों की संख्या अब तक की सबसे कम है। यह बीजेपी और योगी आदित्यनाथ के दबाव का ही असर माना जा रहा है।
नीतीश कुमार, जो कभी ‘सेक्युलर’ राजनीति का चेहरा माने जाते थे, अब हिंदू-मुसलमान की लकीर पर चुपचाप खड़े दिख रहे हैं।
योगी का दोहरा चेहरा: ‘विदेशी मुसलमान’ बनाम ‘भारतीय मुसलमान’
योगी आदित्यनाथ जब बिहार आते हैं, तो नफरत का एजेंडा लेकर आते हैं। लेकिन यह वही योगी हैं जो विदेश से आने वाले मुस्लिम नेताओं, जैसे अफगानिस्तान के विदेश मंत्री मुत्तकी, के आगे पलकें बिछा देते हैं।
उत्तर प्रदेश में लूलू मॉल खोलने वाले अरब निवेशक के साथ तस्वीरें खिंचवाने में उन्हें कोई परहेज नहीं होता, लेकिन बिहार की धरती पर आते ही उन्हें “मुसलमान” याद आ जाते हैं।
अपराध और जंगलराज का झूठा नैरेटिव
योगी बिहार में मंच से कहते हैं कि “जंगलराज खत्म होना चाहिए”। लेकिन NCRB डेटा खुद बताता है कि अपराध और बलात्कार के मामलों में उत्तर प्रदेश नंबर वन है — यानी योगी के अपने राज में ही “जंगलराज” सबसे ज्यादा है।
फिर भी वे बिहार को असुरक्षित दिखाकर वोट मांगते हैं। सवाल यह है कि आखिर बिहार में किस ‘जंगलराज’ की बात की जा रही है — बीस साल पुरानी या वर्तमान की?
असली मुद्दे: बेरोजगारी, महंगाई और कैश ट्रांसफर की सियासत
जब बिहार के नौजवान रोजगार मांगते हुए सड़कों पर उतरते हैं, तो उनके लिए लाठियां हैं; लेकिन जब चुनाव आते हैं, तो उनके परिवारों के खाते में पैसा डाल दिया जाता है।
6 अक्टूबर को चुनाव की घोषणा हुई और उसी दिन 1 करोड़ 21 लाख महिलाओं के खाते में 10-10 हजार रुपये ट्रांसफर किए गए।
यह क्या विकास है या चुनावी रिश्वत?
अगर बिहार में सचमुच “विकास” हुआ होता, तो आज भी राज्य की एक-तिहाई आबादी को दूसरे राज्यों में मज़दूरी करने न जाना पड़ता।
‘विकास बनाम बुर्का’ की स्क्रिप्ट
बिहार में न कोई ‘बुर्का’ मुद्दा है, न कोई ‘धर्म युद्ध’। यह स्क्रिप्ट सिर्फ़ बाहर से आयात की गई है।
बिहार के नौजवान “बुर्के” के खिलाफ नहीं, पेपर लीक, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़कों पर उतरे थे।
लेकिन बीजेपी और योगी जैसे नेता जानते हैं कि इन सवालों के जवाब देना मुश्किल है, इसलिए वे जनता को धर्म की खाई में उलझाए रखते हैं।
‘तालिबान शरणं गच्छामि’ वाली सियासत
योगी आदित्यनाथ और मोदी सरकार पर अब ‘तालिबानी राजनीति’ करने के तंज भी लग रहे हैं।
टालिबान के विदेश मंत्री के स्वागत में बिछाई गई “पलकें” और देवबंद-अग्रे में हुए समारोहों की तस्वीरें इस विरोधाभास को और उजागर करती हैं।
वहीं बिहार में वही नेता “मुसलमान खतरा हैं” कहकर वोट मांगते हैं।
उपेंद्र कुशवाहा और NDA की अंदरूनी कलह
NDA के भीतर भी सबकुछ ठीक नहीं है। उपेंद्र कुशवाहा खुले तौर पर कहते हैं कि “बहुत सी डील बताने की नहीं होती।”
उन्हें जो सीटें मिली हैं, वे कठिन मानी जाती हैं — जहाँ राजद और भाकपा (माले) का मजबूत प्रभाव है।
यानी NDA के भीतर भी बेचैनी और असंतोष उफान पर है।
निष्कर्ष: बिहार में नफरत नहीं बिकती
भले ही योगी आदित्यनाथ हिंदू-मुसलमान का एजेंडा लेकर आए हों, लेकिन बिहार की जनता के सामने सवाल वही हैं —
रोज़गार, शिक्षा, उद्योग और सम्मान।
बिहार की मिट्टी में नफरत की ज़मीन नहीं है। यही वजह है कि बीजेपी को हर बार नितीश कुमार जैसे सहयोगी की जरूरत पड़ती है।
क्योंकि अकेले ‘नफरत’ के बूते बिहार नहीं जीता जा सकता।