November 14, 2025 9:27 pm
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कर्ज की मार, भ्रष्टाचार से नाराज़ हैं महिलाएं, क्या विपक्ष को मिलेगा इसका फायदा!

बिहार चुनाव 2025 की जमीनी कहानी — कर्ज के जाल, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से जूझती महिलाएं अब बदलाव की मांग पर एकजुट हैं। शबनम हाश्मी के संयुक्त महिला अभियान की रिपोर्ट।

📰 बिहार की औरतें बोल उठीं: कर्ज, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ गूंजता बदलाव

“हमसे सरकार पूछती नहीं, सुनती नहीं। दो बच्चा का नाम राशन कार्ड में नहीं चढ़ा, तो अधिकारी बोलता है – 2000 लगेगा, 3000 लगेगा। कर्जा चुकाने के लिए दूसरा कर्जा लेना पड़ता है। हम कब तक देंगे?” — ये आवाज़ बिहार की उस औरत की है जो न खेत की मालकिन है, न सत्ता की सुनवाई में शामिल। लेकिन इस बार बिहार की चुनावी ज़मीन पर यही औरतें बदलाव का सुर गा रही हैं।

बेबाक भाषा की इस स्पेशल स्टोरी में हमने बात की सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी से, जिन्होंने बिहार के 20 ज़िलों में हजारों महिलाओं से मुलाकात की। यह सर्वेक्षण और संवाद “संयुक्त महिला अभियान” के तहत हुआ है, जिसका मकसद था यह जानना कि आखिर इस चुनाव में बिहार की महिलाओं के मन में क्या चल रहा है?

🧾 महिलाओं का पहला मुद्दा: कर्ज का जाल

बिहार के गांव-गांव में माइक्रो फाइनेंस कंपनियों ने ऐसा जाल बिछाया है कि औरतें अब उसे “जीवन का जंजाल” कह रही हैं।
शबनम हाश्मी बताती हैं —

“कोई बीमार हो जाए, बेटी की शादी हो, या बच्चा कॉलेज जाए — पैसे नहीं होते। महिलाएं लोन लेती हैं। एक लोन चुकाने के लिए दूसरा, फिर तीसरा लोन लेना पड़ता है। हफ्ते-हफ्ते की किस्तें, और किस्त न देने पर वसूली करने वाले घर में घुस आते हैं। बकरी, अनाज, बर्तन तक उठा ले जाते हैं।”

कई गांवों में वसूली के डर से पूरा परिवार पलायन कर गया है।
पालीगंज, गया, और भोजपुर के गांवों से महिला आत्महत्याओं की खबरें आई हैं।
एक महिला ने कहा —

“हमारा आदमी मजदूरी पर गया, रोज कमाता है रोज खाता है। लोन की किस्त देने के लिए भी कर्ज लेना पड़ता है। हम नहीं चाहते ये सरकार रहे।”

💰 दूसरा बड़ा मुद्दा: भ्रष्टाचार और घूसखोरी का तंत्र

हर जिले में एक जैसी कहानी —
राशन कार्ड बनवाने के ₹3000, नाम जोड़ने के ₹2000, जन्म प्रमाणपत्र के ₹10,000, आधार कार्ड के ₹5000।
यह दरें अब बिहार में ‘फिक्स रेट’ की तरह चल रही हैं।

“हम राशन कार्ड बनवाने गए, बोले 3000 दो। बच्चे का नाम जोड़ने गए, बोले 2000 दो। इतना पैसा हम कहाँ से लाएँ? वोट लेने आता है तो हाथ जोड़ता है, जीत के चला जाता है।”

शबनम हाशमी कहती हैं —

“मैंने कई राज्यों में काम किया है, पर जितना करप्शन बिहार में दिखा, उतना कहीं नहीं। हर योजना, हर कार्ड, हर सुविधा पर रिश्वत टैक्स जैसा लग चुका है।”

महिलाएं कहती हैं कि “सुशासन” अब मज़ाक का शब्द बन गया है —

“राशन कार्ड में आठ नाम हैं, राशन तीन को मिलता है। मोदी जी का पांच किलो राशन भी नहीं आता पूरा।”

👩‍🌾 तीसरा मुद्दा: बेरोजगारी और पलायन का दर्द

हर गांव में महिलाओं ने एक ही बात दोहराई —

“हमारा बेटा, हमारा आदमी बाहर मत जाओ, यहीं काम करो।”

पलायन ने बिहार की औरतों का बोझ कई गुना बढ़ा दिया है। वे खेत भी संभालती हैं, घर भी, बुजुर्गों की देखभाल भी करती हैं।
अब वे कह रही हैं —

“अगर नौकरी मिल जाए, तो कोई बाहर क्यों जाएगा? हम यहीं अपने बच्चों के साथ जीना चाहते हैं।”

🎭 ‘दस हजार’ की राजनीति: प्रलोभन या उधार?

शबनम हाशमी बताती हैं कि चुनाव से ठीक पहले नीतीश कुमार सरकार ने महिलाओं के खातों में ₹10,000 की राशि डाली। बाद में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि यह “खैरात नहीं, एडवांस लोन” है।
लेकिन जमीनी महिलाओं ने इसे “खरीदने की कोशिश” कहा।

“हमको 10,000 नहीं चाहिए, हमको नौकरी चाहिए। हम खुद कमाना चाहते हैं।”

कई महिलाओं ने कहा —

“इस 10,000 से क्या होगा? इससे तो दो बकरी ही खरीदी जा सकती है, जिंदगी नहीं बदल सकती।”

📉 महिलाओं की नाराज़गी और ‘सुशासन’ का मिथक

बिहार में पिछले 20 साल से जिस “महिला वोट बैंक” को नीतीश कुमार की ताकत कहा जाता था, वही अब सबसे बड़ा असंतोष बन गया है।
गरीब औरतों के मोहल्लों में गुस्सा साफ है —

“सरकार बदलनी चाहिए। हमको अब दूसरा सरकार चाहिए।”

शबनम का आकलन है —

“मैंने 18-20 जिलों में जाकर जो सुना, उसमें गरीब महिलाओं का बहुत बड़ा वर्ग इस बार नीतीश जी को वोट नहीं देने जा रहा है। लोग अब बदलाव चाहते हैं, और वो बदलाव की तैयारी में हैं।”

⚖️ बदलाव की आहट: क्या महिलाएं बदलेंगी बिहार का फैसला?

इस बार बिहार की राजनीति में औरतें सिर्फ ‘मतदाता’ नहीं, ‘निर्णायक शक्ति’ बनकर उभरी हैं।
उनकी मांगें साफ हैं —

  • कर्ज माफी
  • भ्रष्टाचार पर लगाम
  • स्थानीय रोजगार
  • पेंशन और राशन में पारदर्शिता

शबनम का निष्कर्ष स्पष्ट है —

“अगर गठबंधन के दल जमीनी स्तर पर सक्रिय हुए और बूथ तक पहुंचे, तो इस बार बिहार में महिला वोटर बदलाव की दिशा तय करेंगे।”

📍 निष्कर्ष

बिहार की औरतें अब खैरात नहीं, अधिकार चाहती हैं।
वे 10,000 के नोट पर नहीं, 20 साल की हकीकत पर वोट देंगी।
इस बार चुनाव सिर्फ सत्ता बदलने का नहीं, समझ बदलने का मौका है —
जहां औरतें कह रही हैं —

“हमको सरकार चाहिए, जो हमें सुने — न कि हमें लोन में डुबो दे।”

भाषा सिंह

1971 में दिल्ली में जन्मी, शिक्षा लखनऊ में प्राप्त की। 1996 से पत्रकारिता में सक्रिय हैं।
'अमर उजाला', 'नवभारत टाइम्स', 'आउटलुक', 'नई दुनिया', 'नेशनल हेराल्ड', 'न्यूज़क्लिक' जैसे
प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों

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