बिना ट्रायल के सज़ा: दिल्ली हाई कोर्ट ने पाँच साल से जेल में क़ैद 9 आरोपियों की जमानत याचिका खारिज की,
पनिश्मेंट विदाउट ट्रायल, बिना सुनवाई के सज़ा – यही अब भारत का नया नॉर्मल है।
दिल्ली हाई कोर्ट ने 2 सितंबर 2025 को बड़ा फैसला सुनाते हुए 2020 दिल्ली हिंसा मामले में गिरफ्तार नौ लोगों की जमानत याचिका खारिज कर दी। इनमें प्रमुख नाम हैं – उमर खालिद, गुलफिशा फातिमा, शर्जील इमाम, खालिद सैफी, मीरान हैदर, शिफा-उर-रहमान, अतार खान, मुहम्मद सलीम खान और शादाब अहमद।
ये सभी लोग पाँच साल से जेल में बंद हैं, लेकिन अब तक ट्रायल शुरू नहीं हुआ और न ही चार्जशीट पूरी हुई। बावजूद इसके, हाई कोर्ट की जस्टिस नवीन चावला और जस्टिस शैलेंद्र कौर की बेंच ने साफ शब्दों में कहा – “Appeals dismissed.”
अदालत की विडंबना
याद दिलाना ज़रूरी है कि इसी अदालत ने जुलाई 2025 में कहा था कि 700 गवाहों के बीच किसी व्यक्ति को कितने समय तक जेल में रखा जा सकता है? लेकिन दो महीने बाद अचानक पूरा रुख बदल गया और सभी जमानत याचिकाएँ खारिज कर दी गईं।
वरिष्ठ वकील वृंदा ग्रोवर ने इस फैसले को “गंभीर अन्याय” बताया, वहीं संविधान विशेषज्ञ गौतम भाटिया ने इसे हाल के समय का सबसे भयावह कानूनी अन्याय करार दिया।
जेल ही नियम, जमानत अपवाद
यह फैसला एक गहरे सवाल को जन्म देता है –
- क्यों बलात्कारी, हत्यारे और प्रभावशाली राजनेता नियमित रूप से पैरोल और जमानत पाते रहते हैं?
- और क्यों शांतिपूर्ण आंदोलन से जुड़े छात्र और एक्टिविस्ट पाँच साल से जेल में सड़ रहे हैं?
राम रहीम, कुलदीप सेंगर या बृजभूषण शरण सिंह जैसे नाम न्याय से ऊपर दिखते हैं, जबकि CAA विरोध आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ता जेल की सलाखों में जकड़े हुए हैं।
क्या यह सिर्फ संयोग है?
इन नौ में से नौ के नौ कैदी मुस्लिम हैं। क्या यह महज़ संयोग है?
2020 की हिंसा में सबसे ज़्यादा घर और जानें मुसलमानों की गईं, और अब सबसे ज़्यादा कैदी भी वही समुदाय है। यह सवाल हर जगह गूंज रहा है।
कपिल मिश्रा और राजनीतिक संदर्भ
हिंसा से पहले भाजपा नेता कपिल मिश्रा का भड़काऊ भाषण याद कीजिए – “गोली मारो…”। उस समय दिल्ली हाई कोर्ट के जज एस. मुरलीधर ने सख़्त टिप्पणी की थी, लेकिन उसके तुरंत बाद उनका तबादला कर दिया गया। क्या यह भी महज़ इत्तेफाक था?
लोकतंत्र का क़ैदी
इन कैदियों में से एक, गुलफ़िशा फातिमा, अपनी कविता के ज़रिए लोकतंत्र से सवाल करती हैं –
“सुनो फैज़, क्या तुम्हें पता है?
तुम्हारे और हमारे इंतज़ार में क्या फ़र्क है?”
यह कविता इस पूरे मामले का सार है – इंतजार, अन्याय और लोकतंत्र की चुप्पी।
निष्कर्ष
जेल में बंद इन नौ लोगों का पाँच साल से बिना ट्रायल रहना केवल व्यक्तिगत त्रासदी नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र का टेस्ट केस है।
अगर जमानत भी असंभव हो जाए, तो संविधान और न्यायपालिका की आत्मा पर सबसे बड़ा सवाल उठ खड़ा होता है।