जॉर्ज एवरेस्ट प्रोजेक्ट में उत्तराखंड की धामी सरकार का ‘क्रोनी कैपिटलिज़्म’ उजागर
भारतीय जनता पार्टी की सरकारों पर पूँजीपतियों के हित साधने के आरोप कोई नए नहीं हैं। लेकिन इंडियन एक्सप्रेस की हालिया जाँच रिपोर्ट ने यह साफ कर दिया है कि उत्तराखंड की धामी सरकार ने बाबा रामदेव और उनके पार्टनर आचार्य बालकृष्ण को करोड़ों के मुनाफ़े वाला टेंडर सीधे तौर पर “गिफ्ट” कर दिया।
क्या है पूरा मामला?
दिसंबर 2022 में उत्तराखंड सरकार ने जॉर्ज एवरेस्ट एस्टेट (मसूरी) में एडवेंचर टूरिज़्म प्रोजेक्ट के लिए टेंडर निकाला। इस टेंडर पर तीन कंपनियों ने आवेदन किया, लेकिन जाँच में पाया गया कि तीनों कंपनियाँ बाबा रामदेव और बालकृष्ण की ही हैं।
- भूर्वा एग्री साइंस प्रा. लि. – 99.85% हिस्सेदारी बालकृष्ण की।
- प्रकृति ऑर्गेनिक्स इंडिया लि. – 99.98% हिस्सेदारी बालकृष्ण की।
- राजाज एरोस्पोर्ट्स एंड एडवेंचर प्रा. लि. – सीधे तौर पर पतंजलि से जुड़ी।
नतीजा? टेंडर एक ही ग्रुप को मिला और अब 142 एकड़ ज़मीन, हेलिपैड, कैफ़े, म्यूज़ियम, पार्किंग जैसी सुविधाएँ इन्हीं कंपनियों के हाथ में चली गईं।
धामी सरकार का बचाव
जब यह खुलासा सामने आया तो उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने कहा – “Nothing unusual, process followed” यानी इसमें कोई गड़बड़ी नहीं है। सवाल यह है कि अगर तीनों आवेदन एक ही समूह की कंपनियों से हों, तो यह प्रक्रिया कैसे पारदर्शी हो सकती है?
रामदेव और सत्ता का गठजोड़
रामदेव और उनकी कंपनी पतंजलि लंबे समय से सत्ता प्रतिष्ठान के नज़दीक मानी जाती है।
- प्रधानमंत्री मोदी और योगी आदित्यनाथ के साथ उनकी अनगिनत तस्वीरें सामने आती रही हैं।
- सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट कई बार पतंजलि के झूठे विज्ञापनों पर फटकार लगा चुके हैं, यहाँ तक कि करोड़ों का जुर्माना लगाने की चेतावनी भी दी, लेकिन कभी कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई।
- कोविड काल में ‘कोरोनिल’ दवा से लेकर ‘शहद घोटाला’ तक, हर विवाद में रामदेव बच निकलते हैं।
क्रोनी कैपिटलिज़्म का खुला उदाहरण
यह मामला दर्शाता है कि किस तरह “क्रोनी कैपिटलिज़्म” यानी कुण्ठित पूँजीवाद काम करता है। सत्ता और कॉर्पोरेट मिलकर नियम-क़ायदे तोड़ते हैं और जनता के संसाधनों को निजी जेबों में डालते हैं।
रामदेव-बालकृष्ण की कंपनियों को यह प्रोजेक्ट मिलने के बाद से अब तक 2.2 लाख पर्यटक इस साइट पर आ चुके हैं और मुनाफ़ा कई गुना बढ़ चुका है। सवाल यह है कि क्या यह जनता के टैक्स से बने इंफ्रास्ट्रक्चर का निजीकरण नहीं है?
निष्कर्ष
आज जब भ्रष्टाचार पर सवाल उठते हैं, तो भाजपा सरकारें खुद को ‘ईमानदार’ बताने में सबसे आगे रहती हैं। लेकिन उत्तराखंड का यह टेंडर मामला साफ कर देता है कि असलियत में हालात क्या हैं। सवाल यह है – क्या न्यायपालिका और एजेंसियाँ इस क्रोनी कैपिटलिज़्म पर भी आँख मूँदकर बैठी रहेंगी?